Description
गीता के उपदेशक श्रीकृष्ण एवं उसके प्रणेता महर्षि वेदव्यास के प्रति मेरे हृदय में विश्वास एवं आस्था है। मैं बचपन से ही हिन्दी एवं अंग्रेजी में लिखी हुई अनेक विद्वानों द्वारा कृत गीता के भाष्य एवं टीकायें पढता रहा हूँ और उन टीकाओं से बहुत कुछ सीखा है। गीता ज्ञान से प्रेरित होकर मैनें भी गीता के प्रति अपने विचार प्रकट करने का निर्णय लिया, क्योंकि मन के उद्गारों को, जो गीता से संबंधित है, साहित्य के रूप में प्रकट करना गीता का ही प्रचार-प्रसार करना है। इस कार्य में मैनें अनेक विद्वानों की रचनाओं से सहायता ली है, इनमें डॉ. राधाकृष्णनन, स्वामी दयानन्द, स्वामी आत्मानन्द जी सरस्वती, स्वामी रामसुख दास, स्वामी प्रभूपाद, जयदयाल गोयंदका आदि के नाम सविशेष उल्लेखनीय है। मैं इन विद्वानों के प्रति कृतज्ञ हूँ। स्वामी आत्मानन्द सरस्वती कृत वैदिक गीता के तर्कप्रधान विचारों ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है। आर्य मर्यादा ‘साप्ताहिक’ ने इतना प्रभावित किया कि मैनें उसके कुछ लघु प्रश्नोत्तर इस पुस्तक में ज्यों के त्यों रख दिए हैं।
गीता केवल अर्जुन की जीवन यात्रा नहीं है, यह हम सब की जीवन यात्रा है। जीवन यात्रा में समस्याएं नया रूप लेकर आती है। सभी समस्याओं का समाधान शास्त्रों में नहीं है, यह मानव के मस्तिष्क में है।
इसलिए दूसरे अध्याय – “बुद्धौशरणमन्विच्छ” (2-49) और अठारहवें अध्याय – “यथेच्छसि तथा कुरू” (18-63) में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! प्रत्येक कार्य में अपनी बुद्धि का प्रयोग करो और प्रत्येक कार्य सोच-विचार कर करो।
मैनें अपनी गीता व्याख्या में विद्यार्थियों के जीवन को ध्यान में रखा है। अत: आहार, विहार, विचार, योग, अनुशासन, प्रसन्नता, जीवन-मूल्य तथा तर्कप्रधान ज्ञान पर विशेष जोर दिया है। मैनें साधारण भाषा में सामान्यजन को ध्यान में रखते हुए गीता की व्याख्या करने का प्रयास किया है।
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