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sanson ke darmiyan (सांसों के दरमियाँ )

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श्री जे. एन. शास्त्री गुजराती के लोकप्रिय गज़लगो और कवि हैं। अब तक उनके दो गज़ल-संग्रह और एक कविता-संग्रह गुजराती में प्रकाशित हो चुके हैं। रचना की स्वीकृति के लिहाज से गुजराती भाषा का दायरा हिन्दी की तुलना में काफी छोटा है। दूसरी बात, राजभाषा के अलावा हिंदी के साथ राष्ट्रभाषा का गौरव जुड़ा है। सम्पर्क भाषा का काम वह कई सदियों से करती आ रही है। 70-80 सालों से लेकर अब तक सिनेमा टी.वी आदि जनसंचार माध्यमों ने आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी को फूलने फलने और फैलने का अधिक अवकाश दिया। दक्षिण को छोड़कर सभी तरफ से गुजरात हिंदी भाषी प्रांतो से घिरा भी है, इसलिए बहुत पहले से गुजराती के साथ हिंदी का बड़ा आत्मीय संबंध रहा है। गुजरात में हिंदी का आवाजाही और दोनों भाषाओं के बीच बहनापा का रिश्ता सदियों पुराना है। किसी गुजराती भाषी रचनाकार के पास हिंदी को अपना बनाने के दो रास्ते हैं। एक, या तो गुजराती भाषी रचनाकार हिंदी को अर्जित करते हुए इतना अपना बना ले कि वह अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी में भी रचना करने में समर्थ हो जाए, या फिर वह अपनी गुजराती रचना का स्वयं हिंदी में अनुवाद कर दे। दो, या फिर यह अपनी गुजराती रचना का, हिंदी पर अधिकार न होने के कारण, ऐसे अधिकारी व्यक्ति से अनुवाद हिंदी में करवायें, जिसका मूल भाषा और अनूदित भाषा दोनों पर अधिकार हो।
गुजराती रचनाकारों की हिंदी में आवाजाही की दो परंपराएं हैं। एक परंपरा आधुनिक काल के पहले से चली आ रही, जिसमें ऐसे अनेक गुजराती कवि है, जो अपनी मातृभाषा गुजराती के साथ स्वयं हिंदी में रचना करने में समर्थ थे। उन्हें अपनी रचना का स्वयं या किसी और से हिंदी में अनुवाद करने या करवाने की कोई जरूरत नहीं थी। उन्होंने इस कदर भाषा (व्रज), गूजरी (खड़ी बोली), व्रज और खड़ी बोली की मिली जुली हिंदी को अर्जित कर लिया था कि वे स्वयं उसमें लिखना पसंद और गौरव की बात समझते थे। अखो, धनआनंद, प्राणनाथ, दयाराम, व्रह्मानंद, प्रेमानंद प्रेमसखी को हिंदी में लिखने में कोई मुश्किल नहीं थी।

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श्री जे. एन. शास्त्री गुजराती के लोकप्रिय गज़लगो और कवि हैं। अब तक उनके दो गज़ल-संग्रह और एक कविता-संग्रह गुजराती में प्रकाशित हो चुके हैं। रचना की स्वीकृति के लिहाज से गुजराती भाषा का दायरा हिन्दी की तुलना में काफी छोटा है। दूसरी बात, राजभाषा के अलावा हिंदी के साथ राष्ट्रभाषा का गौरव जुड़ा है। सम्पर्क भाषा का काम वह कई सदियों से करती आ रही है। 70-80 सालों से लेकर अब तक सिनेमा टी.वी आदि जनसंचार माध्यमों ने आधुनिक भारतीय भाषाओं में हिंदी को फूलने फलने और फैलने का अधिक अवकाश दिया। दक्षिण को छोड़कर सभी तरफ से गुजरात हिंदी भाषी प्रांतो से घिरा भी है, इसलिए बहुत पहले से गुजराती के साथ हिंदी का बड़ा आत्मीय संबंध रहा है। गुजरात में हिंदी का आवाजाही और दोनों भाषाओं के बीच बहनापा का रिश्ता सदियों पुराना है। किसी गुजराती भाषी रचनाकार के पास हिंदी को अपना बनाने के दो रास्ते हैं। एक, या तो गुजराती भाषी रचनाकार हिंदी को अर्जित करते हुए इतना अपना बना ले कि वह अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी में भी रचना करने में समर्थ हो जाए, या फिर वह अपनी गुजराती रचना का स्वयं हिंदी में अनुवाद कर दे। दो, या फिर यह अपनी गुजराती रचना का, हिंदी पर अधिकार न होने के कारण, ऐसे अधिकारी व्यक्ति से अनुवाद हिंदी में करवायें, जिसका मूल भाषा और अनूदित भाषा दोनों पर अधिकार हो।
गुजराती रचनाकारों की हिंदी में आवाजाही की दो परंपराएं हैं। एक परंपरा आधुनिक काल के पहले से चली आ रही, जिसमें ऐसे अनेक गुजराती कवि है, जो अपनी मातृभाषा गुजराती के साथ स्वयं हिंदी में रचना करने में समर्थ थे। उन्हें अपनी रचना का स्वयं या किसी और से हिंदी में अनुवाद करने या करवाने की कोई जरूरत नहीं थी। उन्होंने इस कदर भाषा (व्रज), गूजरी (खड़ी बोली), व्रज और खड़ी बोली की मिली जुली हिंदी को अर्जित कर लिया था कि वे स्वयं उसमें लिखना पसंद और गौरव की बात समझते थे। अखो, धनआनंद, प्राणनाथ, दयाराम, व्रह्मानंद, प्रेमानंद प्रेमसखी को हिंदी में लिखने में कोई मुश्किल नहीं थी।

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