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Sahitya me Nari ka Badalta Swarop (साहित्य में नारी का बदलता स्वरूप)

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आकर्षण एवं उपेक्षा के दुकूलों में प्रवाहित नारित्व की चिन्तनधारा ने जीवन के व्यापक क्षेत्र को अपने स्नेह, समर्पण, ममता, करूणा, उदारता आदि उदात्त गुणों के अमृत से जितना अभिसिंचित किया, उसका समुचित फल नारी कभी नहीं चख पायी। युगों से अपने उलझे जीवन-प्रश्नों के उत्तर खोजती हुई नारी आज भी पुरुष के लिए ही नही, स्वयं के लिए भी प्रश्न बनी हुई है। सुदीर्घ अतीत की पगडण्डियों के अनेक घेर-घुमाव, उतार-चढ़ाव में अंकित उसका अश्रु-हारमय इतिहास धूमिल होते हुए भी अस्तित्वहीन नहीं हो पाया है। अपनी लघुता में भी महत्ता, शीतलता में भी जीवन की ऊष्मा तथा सुंदर तन में भी शिवम् छिपाये रहने वाली यह नारी सदा से समाज का ही नहीं, साहित्य का भी प्रेरक तत्त्व रही है। युगों से उपन्यासकार जीवन की इस ऊष्मामयी, उल्लासमयी एवं अनुरागमयी अरुण-किरण को उपन्यास-जल का अर्ध्य चढ़ाते रहे हैं-कभी आसक्ति से, तो कभी अनुराग से, कभी आकर्षण से, तो कभी आदर से । जिस प्रकार नन्हीं सी अरुण किरण के संस्पर्श से जल-थल, तल-अतल, जड़-चेतन कोई भी अछूता नहीं रह पाता, उसी प्रकार समाज का प्रत्येक कोना, साहित्य की प्रत्येक विधा नारी से शून्य नहीं है। नाटक हो या एकांकी, कहानी हो या उपन्यास सभी में, विशेषकार उपन्यास की दुनिया में तो अपने गुणों के विस्तार के कारण वह उसकी अधिष्ठात्री ही रही है। नारी का अंतरंग और बहिरंग अत्यंत उलझा हुआ है, उसे संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त कर पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

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आकर्षण एवं उपेक्षा के दुकूलों में प्रवाहित नारित्व की चिन्तनधारा ने जीवन के व्यापक क्षेत्र को अपने स्नेह, समर्पण, ममता, करूणा, उदारता आदि उदात्त गुणों के अमृत से जितना अभिसिंचित किया, उसका समुचित फल नारी कभी नहीं चख पायी। युगों से अपने उलझे जीवन-प्रश्नों के उत्तर खोजती हुई नारी आज भी पुरुष के लिए ही नही, स्वयं के लिए भी प्रश्न बनी हुई है। सुदीर्घ अतीत की पगडण्डियों के अनेक घेर-घुमाव, उतार-चढ़ाव में अंकित उसका अश्रु-हारमय इतिहास धूमिल होते हुए भी अस्तित्वहीन नहीं हो पाया है। अपनी लघुता में भी महत्ता, शीतलता में भी जीवन की ऊष्मा तथा सुंदर तन में भी शिवम् छिपाये रहने वाली यह नारी सदा से समाज का ही नहीं, साहित्य का भी प्रेरक तत्त्व रही है। युगों से उपन्यासकार जीवन की इस ऊष्मामयी, उल्लासमयी एवं अनुरागमयी अरुण-किरण को उपन्यास-जल का अर्ध्य चढ़ाते रहे हैं-कभी आसक्ति से, तो कभी अनुराग से, कभी आकर्षण से, तो कभी आदर से । जिस प्रकार नन्हीं सी अरुण किरण के संस्पर्श से जल-थल, तल-अतल, जड़-चेतन कोई भी अछूता नहीं रह पाता, उसी प्रकार समाज का प्रत्येक कोना, साहित्य की प्रत्येक विधा नारी से शून्य नहीं है। नाटक हो या एकांकी, कहानी हो या उपन्यास सभी में, विशेषकार उपन्यास की दुनिया में तो अपने गुणों के विस्तार के कारण वह उसकी अधिष्ठात्री ही रही है। नारी का अंतरंग और बहिरंग अत्यंत उलझा हुआ है, उसे संपूर्णता के साथ अभिव्यक्त कर पाना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।

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