Description
बच्चे अब नहीं सुनते कहानियां और बड़े भी नहीं पढ़ते कहानियां दादी, नानी या माँ, पिताजी कोई भी नहीं सुना पाते कहानी। कभी पढ़ी होगी मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी अपुष्ट सी याद है कभार-कभार उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर देने के लिए । अब कहानियां जीवन का अंग नहीं होतीं बल्कि सारा जीवन ही कहानी में परिवर्तित हो चुका है। शोषक और शोषण की दास्तां भेष बदलकर अब भी जारी है बहरूपियों को मनोरंजन करने की जरूरत नहीं है अपना ही गिरेबां उससे अच्छा चित्रण कर देता है। कल्पनाओं की दुनिया में विचरण करने की लालसा समाप्त हो चुकी है। आलौकिक दुनिया अब मन नहीं ललचाती । कामधेनु गाय और कल्पतरू वृक्ष के नीचे बैठकर दुनिया की सारी सुख सुविधायें पा लेने की बातें बहरूपिया के भेष सी नजर आने लगीं हैं। व्यक्ति वास्तविकता के धरातल पर जीने लगा है। वास्तविक जीवन दुःखदायी होता है, शोषक और शोषण की परिभाषा का जीवंत चित्रण होता हैं। आंखों के आंसू सहचर की भांति साथ रहते हैं और आनंद के पल क्षणभर मुखड़ा दिखाकर निरंतर जीते रहने का संबल प्रदान करते हैं।
कहानियों का स्वरूप बदल गया है। कहानियों के पात्र बदल गए हैं। कहानी का नायक समाज में विचरण करते दिखाई दे देता है उसका मुखौटा जीर्ण-शीर्ण हो चुका है, नकाब से झांकती आंखें देखने का प्रयास अब नहीं करना पड़ता जो शोषण कर रहा है वह सरेआम कर रहा है जो शोषित हो रहा है वह अनेक खोखली संवेदनाओं के भार से लहुलहान होते हुए भी शोषित ही होता जा रहा है। उसकी यह पीड़ा कहानी का कथानक है, उसकी यह पीड़ा मरियम के बहते आंसू का वास्तविक स्वरूप होती है। कहानी का सुखांत भी होता है और कहानी का दुखांत भी पर आंसू दोनो ही अवस्था में सहगामी होते है।
कहानी वर्तमान परिवेश का चित्रण करती नजर आती है। कहानी बता सकती हैं कि प्रेमंचद जी का होरी अब हीरालाल बन गया है और भविष्य में द्वार पर एच.एल के वेश में नजर आयेगा।
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