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Path Ka Daava by Sharatchandra, Tr. Vimal Mishra

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शरत् के अत्यन्त लोकप्रिय उपन्यास ‘पथेर दाबी’ का यह नया और प्रामाणिक अनुवाद एक बार फिर आत्ममन्थन और वैचारिक-सामाजिक बेचैनी की उस दुनिया में ले जाने को प्रस्तुत है, जो साठ-सत्तर साल पहले इस देश की आम आबोहवा थी। एक तरफ़ अंग्रेज़ सरकार का विरोध, उसी के साथ-साथ सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति का जोश और एक सजग राष्ट्र के रूप में पहचान अर्जित करने की व्यग्रता—यह सब उस दौर में साथ-साथ चल रहा था। शरत् का यह उपन्यास बार-बार बहसों में जाता है, अपने वक़्त को समझने की कोशिश करता है, और प्रतिरोध तथा अस्वीकार की एक निर्भीक और स्पष्टवादी मुद्रा को आकार देने का प्रयास करता है।

पहली बार सम्पूर्ण पाठ के साथ, सीधे बांग्ला से अनूदित यह उपन्यास भावुक-हृदय शरत् के सामाजिक और राजनीतिक सरोकारों और चिन्ताओं का एक व्यापक फलक प्रस्तुत करता है। तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों पर दो टूक बात करता यह उपन्यास एक लेखक के रूप में शरत् की निर्भीकता और स्पष्टवादिता का भी प्रमाण है। अंग्रेज़ी शासन और बंगाली समाज के बारे में उपन्यास के मुख्य पात्र डॉ. सव्यसाची की टिप्पणियों ने तब के प्रभु समाज को विकल कर दिया था, तो यह स्वाभाविक ही था। अपने ही रोज़मर्रापन में गर्क भारतीय समाज को लेकर जो आक्रोश बार-बार इस उपन्यास में उभरा है, वह मामूली फेरबदल के साथ आज भी हम अपने ऊपर लागू कर सकते हैं। उल्लेखनीय है डॉक्टर का यह वाक्य, “ऐसा नहीं होता, भारती, कि जो पुराना है वही पवित्र है। सत्तर साल का आदमी पुराना होने की वजह से दस साल के बच्चे से ज़्यादा पवित्र नहीं हो सकता।”

स्वतंत्रता संघर्ष की उथल-पुथल के दौर में भारतीय समाज के भीतर चल रही नैतिक और बौद्धिक बेचैनियों को प्रामाणिक ढंग से सामने लाता एक क्लासिक उपन्यास।

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Weight 450 g
Dimensions 22 × 14 × 3 cm
Book Author

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Pages

352

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