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Nauka Doobi by Ravindranath Thakur, Tr. Jaishree Dutt

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भारत को आधुनिक समाज बनने के मार्ग पर आगे बढऩे की शक्ति प्रदान करनेवाले रवीन्द्रनाथ ने ‘नौका डूबी’ उपन्यास में व्यक्ति की मनोव्याकुलता के रहस्य उद्घाटित किए हैं। इसमें व्यक्ति के अन्तर्लोक और समाज की इच्छाओं-आस्थाओं के मध्य होनेवाली टकराहट से उत्पन्न त्रासद जीवन-दशाओं की अभिव्यक्ति हुई है। कमला, रमेश, हेमनलिनी और नलिनाक्ष तेज़ी से तथा अकस्मात् आकार लेती घटनाओं के जाल में निरन्तर उलझते रहते हैं। ‘गोरा’ की रचना के पूर्व रवीन्द्रनाथ भारत के समाज का जो रूप देख रहे थे और व्यक्तियों की चिन्तन-प्रणाली में जिस परिवर्तन की आहट सुन रहे थे, वही इस कृति में है। ‘नौका डूबी’ को उसमें निहित विशिष्ट सांस्कृतिक और सामाजिक प्रयोगों को जाने बिना अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता। ध्यान यह भी रखना होगा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर भारतीय साहित्य की अवधारणा के पहले-पहले पक्षधरों में से थे; अत: उन्होंने अपनी रचनाओं में समग्र समाज के भीतरी व्यवहारों को भरपूर जगह दी है। जो पाठक यथास्थान प्रस्तुत टिप्पणियों पर ध्यान देंगे, उन्हें पता चल जाएगा कि ‘नौका डूबी’ के अनुवाद में इस सत्य को सामने लाने का प्रयास किया गया है। प्रामाणिकता और मूल की यथासाध्य रक्षा इस अनुवाद-कार्य का लक्ष्य रहा है।

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