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Muktibodh Ki Kavya Srishti by Suresh Rituparna

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आधुनिक हिन्दी काव्य-साहित्य के इतिहास में निराला के बाद मुक्तिबोध एक ऐसे कवि के रूप में सदैव याद किए जाएँगे जिनका जीवन ही उनकी कविता होती है। जिसकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता है।

मुक्तिबोध के काव्य का निर्माण चेतना को झकझोर देनेवाले अन्तःसंघर्ष, उनके अभिशप्त युग तथा व्यक्तित्व के सन्धान से उपजा है। वस्तुत: उनकी कविताओं का पेचीदापन इसी अन्तःसंघर्ष की उपज है। लेकिन अपने युग को अर्थ और वाणी देने से अधिक और क्या सार्थक कार्य कोई कवि कर सकता है!

मुक्तिबोध का काव्य इस चुनौती को स्वीकार करता है तथा अपने युग की भयावहता को पूर्णता के साथ रूपायित भी करता है।

यह सच है कि मुक्तिबोध एक प्रतिबद्ध कवि हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता को किसी वाद-विशेष से जोड़कर ही यदि देखा जाता रहा तो यह उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ अन्याय ही होगा। वस्तुत: उनकी प्रतिबद्धता तो वैश्विक स्तर पर श्रमशील मानव के प्रति ही रही है। प्रस्तुत पुस्तक मुक्तिबोध की काव्य-संवेदना को इसी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास है।

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