Description
जितना मैं जिंदगी को जीती गई घूँट घूँट शाश्वत सत्य पीती गई भर ली इबादत से झोली अपनी अब तक जो बिल्कुल रीती गई
थी रग रग सृष्टि के कर्ज़ से भरी चुकने लगा ऋण जो भी उधार है यूँ तो सँग मेरे लफ़्ज़ों का भँडार है चुप्पी बेहतर, मौन में जीवन सार है
निस्वार्थ प्रेम बाँटा तो पाई पहचान मानव मूल्यों का श्रृंगार है अभिमान अगर ठंडी छाया की ही रहती मुरीद फिर खिली धूप में कैसे मनाती ईद
अपनी ग्रैंड डॉटर स्वस्ति के आठवें जन्म दिवस पर फिर एक बार अपनी संवेदनाओं को लफ़्ज़ों के माध्यम से पाठकों के समक्ष लाई हूँ। मेरी आठवीं किताब – “लागी ऐसी लगन” हमेशा की तरह अपने आसपास के वातावरण से सँचित मानवीय संवेदनाओं की मिश्रित गाथा है, जिसका लेखन श्रीकृष्ण कृपा से ही संभव हुआ है, इसलिए जैसा जैसा उसने लिखवाया वैसा का वैसा उसके ब्रह्माण्ड को ही समर्पित कर रही हूँ।
अच्छा-बुरा, तो केवल साँसारिक दृष्टि का भाव है मगर मेरे मन में तो, केवल कृष्णायन का ही चाव है
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