Description
दो शब्द हैं एक शब्द है रूप और दूसरा है स्वरूप । देखने में दोनों शब्दों का अर्थ एक-सा ही लगता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि रूप हमारी आँखों का विषय है, किसी और का भी हो सकता है। लेकिन जब हम स्वरूप शब्द का प्रयोग करते हैं तो ऐसा आभासित होता है कि यह स्वरूप है यानी हमारा जो अपना रूप है या जो कुछ भी है, उसका स्वरूप है। इस अर्थ में, मैं यह मानता हूँ कि कविता कवि के भावों का, विचारों का, व्यक्तित्व का स्वरूप है। जैसा वो सोचता है, वो जिन भावनाओं की तरंगों में बहता है और जो उसका मूल व्यक्तित्व होता है, उसकी छाप उसकी कविता पर होती है। इसलिए मैं कविता के सन्दर्भ में स्वरूप शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ, जिसका आशय यही है कि वह कवि के व्यक्तित्व का स्वरूप है। इसलिए जब हम किसी कवि की कोई कविता पढ़ते हैं या उसका पूरा रचना संसार देखते हैं, तो उसको देखने के बाद जो निष्कर्ष निकालते हैं, उसके माध्यम से उस कवि का स्वरूप ही हमारे सामने प्रकट होता है। दूसरी बात जो मेरे मन में इन दो शब्दों को लेकर आती है कि शब्दों के माध्यम से कविता कोई भी रूप धारण कर ले लेकिन वह अपने स्व को नहीं छोड़ती है। उदाहरण के लिए सोने से कोई भी आभूषण जैसे अंगूठी, कुंडल, गले की माला आदि कुछ भी बनाया जाय लेकिन उसका मूल स्वरुप सोना ही होता है। इसी प्रकार कवि की जो भावना होती हैं, विचार होते हैं, उनको वह शब्दों में अभिव्यक्ति करता है। अर्थात जो उसका मूल स्वरूप स्वर्ण है, वह नए नए आकार लेकर आता है। वह गीत के रूप में आ सकता है, ग़ज़ल के रूप में आ सकता है, दोहों, हाइकु या साहित्य की अन्य विधाओं के रूप में आ सकता है, लेकिन वह होता सोना ही है यानी कवि के भावों व विचारों का मूल तत्व ही ।
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