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Looking for coupon codes? See ongoing discountsशमशेर बहादुर सिंह की कविता एक विलक्षण संसार की रचना करती है जिसमें आपको अपनी नहीं उसकी शर्तों पर जाना होता है। इस कविता को आप चलते-जाते ऐसे ही नहीं पढ़ सकते, यह कविता अपने काठिन्य से नहीं, जैसा कि कुछ लोग आरोप लगाते हैं, बल्कि अपनी अद्वितीयता से आपको पढ़ने की आपकी कंडीशंड आदतों से छूटकर वापस नए सिरे से सावधान होने को कहती है।
यह शमशेर का उस दौर में आया संग्रह है जब कवि के रूप में उनका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण हो चुका था। इससे पहले उनकी ‘कुछ कविताएँ’, ‘कुछ और कविताएँ’, और ‘इतने पास अपने’ जैसे संकलन आ चुके थे और हिन्दी कविता की दुनिया में उन्हें लेकर पक्ष-विपक्ष बन चुका था। इसलिए यह संग्रह और भी महत्त्वपूर्ण है, हालाँकि जिस तरह उनके पहले कविता-संग्रह के लिए कविताओं का चयन जगत् शङ्खधर ने किया था, इस किताब में भी चयन उन्हीं का रहा, अर्थात् अब तक अपनी कविता को लेकर उनका संकोच जस का तस था। इस संग्रह की भूमिका में भी वे कहते हैं—‘अपनी काव्य-कृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्नचिह्न-सा ही रही है, कितना ही धुँधला सही।’ अपने काव्य-कर्म को लेकर उनके इसी संशय ने शायद उन्हें भाषा और शिल्प के उस मानक तक पहुँचाया जिसे उनके जीते-जी ही ‘शमशेरियत’ कहा जाने लगा था, और उन्हें ‘कवियों का कवि’। बकौल नामवर सिंह, ‘शमशेर की आत्मा ने अपनी अभिव्यक्ति का जो एक प्रभावशाली भवन अपने हाथों तैयार किया है, उसमें जाने से मुक्तिबोध को भी डर लगता था—उसकी गम्भीर प्रयत्नसाध्य पवित्रता के कारण।’ और बकौल मलयज, ‘एक नितान्त निजी मुहावरा अपने पवित्र दर्प में तना हुआ।’
बहरहाल ‘चुका भी हूँ नहीं मैं’ का यह संस्करण हिन्दी की नई पीढ़ी को एक आमंत्रण के रूप में प्रस्तुत है कि वह भी अपने इस पूर्वज, और कविता-परम्परा के श्रेष्ठतम पैमानों में से एक, कवि की कविताओं को जाने।
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Weight | 200 g |
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Dimensions | 20 × 13 × 1 cm |
Book Author | |
Publisher | |
Language | |
Pages | 144 |
Binding | |
Condition |
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