Description
मैंने श्रीमती मीनू त्रिपाठी की ‘चिट्ठी’ पढ़ी। आजकल चिट्ठियाँ कम लिखी जाती हैं। लिखी भी जाती हैं तो मन में संदेह बना रहता है कि समय पर पहुँचेगी या नहीं या पहुँचेगी भी कि नहीं। लेकिन मीनू त्रिपाठी की चिट्ठी मिली, उसे पढ़ा और उसमें संग्रहीत कहानियों का संदेश भी समझा। कहानी संग्रह की पहली कहानी ‘चिट्ठी’ के कई फलक हैं जो मानव मन की संवेदनशीलता अथवा संवेदनहीनता से सम्बद्ध है। हरीश बाबू का अपने पते पर किन्हीं कारणों से न भेजी गई चिट्ठियों को कचरा पेटी में फेंकने के लिए कहना सरकारी कर्मचारी की विशेष प्रकार की रुखी और संवेदनशून्य मानसिकता का परिचायक है तो दूसरी ओर रघुराज जी की संवेदनापूर्ण उत्सुकता के बीच उत्पन्न द्वन्द है जिसका बहुत सुन्दर ढंग से मीनू त्रिपाठी जी ने वर्णन किया है। व्यंग्य और उपहास कभी-कभी उपेक्षित या पीड़ित व्यक्ति के निश्चय को दृढ़ता भी प्रदान करते हैं। रघुराज जी का कचरा समझी जाने वाली चिट्ठी का पढ़ना मन को उद्वेलित कर जाता है, कर्त्तव्य-बोध कराता है, संवेदना को जागृत करता है। यहीं पाठक के मन में प्रश्न उठता है कि आगे क्या? इस प्रश्न का उठना कहानीकार की लेखनी की प्रभाविकता का प्रमाण है। सात साल पहले अन-पहुँची पिता के नाम अपनी ही लिखी चिट्ठी पढ़ कर वरुण की प्रतिक्रिया का गुंथन मीनू त्रिपाठी ने बड़ी कुशलतापूर्वक किया है। उनकी लेखन शैली में प्रवाह है। अनेक स्थानों पर कई पंक्तियाँ हृदयस्पर्शी हैं जैसे – ‘चिट्ठियों की सुगन्ध सालों बाद भी मन को तीव्रता से महकाती हैं’, ‘धुंधले शब्द सालों बाद आँखों की नमी से आज और धुंधला गए’, ‘भूलों की छोटी-छोटी कंकड़ियाँ इकट्ठी होकर विशाल शिला में परिवर्तित हो गईं’, ‘फिजा में पानी बन कर आँखों में तैर गया’ आदि-आदि। यह कहानी पिता का पुत्र के भविष्य सँवारने की चिन्ता से लेकर पुत्र का पिता के प्रति प्यार और समर्पण, आधुनिक जीवन-शैली की विविधताओं के बीच पेंगें मारती हुई बढ़ती है और अन्त में सन्तोष का भाव जगा जाती है।
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