Description
हम सब हर समय – हर कहीं, जीवन की चुनौतियों से जूझ रहे होते हैं. मन और मस्तिष्क के बीच एक द्वंद्व की स्थिति बनती-बिगड़ती रहती है. भावना और तर्क में निंरतर संघर्ष चलता रहता है. इसी संघर्ष को सहज रूप से स्वीकार करते हुए हम जिस परिणति तक पहुँचते हैं, उसे अनुभव की संज्ञा दी जा सकती है. यही अनुभव हमारी नियति तय करते हैं. ऐसे ही अंतहीन अनुभवों के सार पर टिका होता है हमारा अस्तित्व – हमारा व्यक्तित्व और हमारा कृतित्व.
इस संकलन में इन्हीं अनुभूतियों का एक धुंधला सा अक्स : कुछ व्यक्तिगत् – कुछ समष्टिगत्, संवेदनशील पाठकों के लिए प्रस्तुत है. भाषा-छंद-बंध के पारम्परिक स्वरूपों से हटकर, यथार्थ के सपाट धरातल पर सीधे मार्ग तय करतीं इन काव्यानुभूतियों का एक ही मंतव्य है – पाठक को अपने साथ लिए चलना और पड़ाव-दर-पड़ाव तय करते हुए गंतव्य तक पहुँचना जिसे लेखक का ‘अंतर्नाद’ कहना अधिक उपयुक्त होगा.
गंतव्य अर्थात् अनुभूतिजनित संवेदनाओं का वह बीहड़ वन या वह अनंत सागर जिसमें वह किंकर्तव्यविमूढ़ निपट अकेला है. जहाँ उसकी पुकार इन शब्दों से एकाकार हो सके, जहाँ उसे एक निराकार मित्र का स्पर्श स्वीकार हो सके. आभारी हूँ उन मित्रों – सहयोगियों – परिजनों का जिन्होंने इस यात्रा को साकार बनाते हुए यहाँ तक पहुँचने में साथ निभाया.
बस, इतना ही मंतव्य है इस संकलन का.
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