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कुछ ना कुछ तो गाते रहिए…….. (kuchh na kuchh to gaate rahie……..)

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प्रस्तुत गीत-संकलन मेरे पिछले प्रकाशित गीत-संग्रह ‘चलो, कुछ गुनगुनाते हैं’ के आगे की कड़ी है, लेकिन केवल प्रकाशन के क्रम में। क्योंकि रचना के क्रम में तो बहुत सारे गीतों का उचित लेखा-जोखा मैं रख भी नहीं पाया। जब तक अकादमी की शिक्षा चलती रही, अर्थात् मेरे परास्नातक कक्षा उत्तीर्ण करने तक, तब तक आदत इतनी खराब रही कि कहीं विद्यालय की डायरी के पिछले पन्ने पर, कहीं प्रैक्टिकल की फाइल के पन्ने को फाड़कर, कहीं किसी पुरानी सी डायरी में, कभी किसी पैम्फलेट के पिछले खाली हिस्से पर, कविता लिख ली और फिर उसे आलस में कभी साफ-साफ एक जगह लिख ही नहीं पाया। उन पन्नों पर भी कविता अंकित करते समय कभी दिन-दिनांक डाल दिये गये, कभी नहीं डाले गये। ऐसी हरकत के कारण रहे, कुछ तो विद्यार्थी जीवन की लाचारियाँ, कुछ मेधावी बनने की बेकार की ललक, कुछ सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव और ढेर सारी मन की आवारगी। हर कविता को लिखने के बाद ऐसा ही लगा जैसे कि किसी दूसरी दुनिया की आनंदपूर्ण यात्रा करके लौट आये और साथ में जो ये छंद-बद्ध शब्दों का गुच्छा ले आये, जिसे लोग कविता या गीत कहने लगे, वे उस आनंदपूर्ण यात्रा की निशानियाँ भर हैं और कुछ नहीं। यूँ समझें, जैसे कि हम किसी सुन्दर पर्यटन-स्थल पर घूमने जाते हैं और वहाँ की फोटोग्राफ लेकर आते हैं, तो वे सारे के सारे छायाचित्र मिलकर भी घूमते समय उठाये गये हमारे अनुभव का स्थान नहीं ले सकते। उसी तरह ये गीत भी मेरी अंतर्यात्रा के कुछ फोटोग्राफ भर हैं।
हाँ, पिछले कुछ सालों में मैंने एक आदत सी बना ली है कि अपनी
कविताएं एक निश्चित स्थान पर दिनांक के साथ अंकित कर देता हूँ।

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प्रस्तुत गीत-संकलन मेरे पिछले प्रकाशित गीत-संग्रह ‘चलो, कुछ गुनगुनाते हैं’ के आगे की कड़ी है, लेकिन केवल प्रकाशन के क्रम में। क्योंकि रचना के क्रम में तो बहुत सारे गीतों का उचित लेखा-जोखा मैं रख भी नहीं पाया। जब तक अकादमी की शिक्षा चलती रही, अर्थात् मेरे परास्नातक कक्षा उत्तीर्ण करने तक, तब तक आदत इतनी खराब रही कि कहीं विद्यालय की डायरी के पिछले पन्ने पर, कहीं प्रैक्टिकल की फाइल के पन्ने को फाड़कर, कहीं किसी पुरानी सी डायरी में, कभी किसी पैम्फलेट के पिछले खाली हिस्से पर, कविता लिख ली और फिर उसे आलस में कभी साफ-साफ एक जगह लिख ही नहीं पाया। उन पन्नों पर भी कविता अंकित करते समय कभी दिन-दिनांक डाल दिये गये, कभी नहीं डाले गये। ऐसी हरकत के कारण रहे, कुछ तो विद्यार्थी जीवन की लाचारियाँ, कुछ मेधावी बनने की बेकार की ललक, कुछ सामाजिक एवं पारिवारिक दबाव और ढेर सारी मन की आवारगी। हर कविता को लिखने के बाद ऐसा ही लगा जैसे कि किसी दूसरी दुनिया की आनंदपूर्ण यात्रा करके लौट आये और साथ में जो ये छंद-बद्ध शब्दों का गुच्छा ले आये, जिसे लोग कविता या गीत कहने लगे, वे उस आनंदपूर्ण यात्रा की निशानियाँ भर हैं और कुछ नहीं। यूँ समझें, जैसे कि हम किसी सुन्दर पर्यटन-स्थल पर घूमने जाते हैं और वहाँ की फोटोग्राफ लेकर आते हैं, तो वे सारे के सारे छायाचित्र मिलकर भी घूमते समय उठाये गये हमारे अनुभव का स्थान नहीं ले सकते। उसी तरह ये गीत भी मेरी अंतर्यात्रा के कुछ फोटोग्राफ भर हैं।
हाँ, पिछले कुछ सालों में मैंने एक आदत सी बना ली है कि अपनी
कविताएं एक निश्चित स्थान पर दिनांक के साथ अंकित कर देता हूँ।

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