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Kiya Ankiya by Purushottam Agarwal, Ed. Om Thanavi, Anand Pandey

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पुरुषोत्तम अग्रवाल हमारे समय की एक महत्त्वपूर्ण बौद्धिक और सर्जनात्मक उपस्थिति हैं। उनका लेखन रूप और अन्तर्वस्तु की दृष्टि से विविध और विशाल है। उनकी कई स्वतंत्र छवियाँ हैं, लेकिन कोई एक छवि नहीं है। चिन्तक, आलोचक, कवि, कथाकार, विमर्शकार, कार्यकर्ता, पत्रकार, व्यंग्यकार, प्राध्यापक, फ़िल्म-विशेषज्ञ, धर्मशास्त्री से मिलकर उनकी छवि बनती है। उनकी समग्र छवि की परख और पहचान के लिए उनके सम्पूर्ण लेखन का परिचय प्राप्त करना जितना ज़रूरी है, उतना ही कठिन भी। उनका समग्र पाठ श्रमसाध्य है, इसलिए उनकी रचनाओं का एक प्रतिनिधि चयन और प्रकाशन विलम्बित माँग थी जिसे इस संचयन के प्रकाशन से पूरा करने का प्रयास किया गया है।

नवीन और प्राचीन वैश्विक वैचारिक निरूपणों और साहित्यिक सिद्धान्तों की स्पष्ट समझदारी और उनसे संवाद की प्रवृत्ति पुरुषोत्तम अग्रवाल की शक्ति है, जो उनके लेखन को निरन्तर आकर्षक और विचारोत्तेजक बनाए रखती है। इसी से उनमें बौद्धिक साहस उत्पन्न होता है, इस साहस का एक प्रमाण है अस्मितावाद की शक्ति और सीमाओं का तटस्थ व साहसपूर्ण मूल्यांकन। इसी साहस का एक और प्रमाण है—धर्म, अध्यात्म और साम्प्रदायिकता पर उनका रुख़। वे धर्म को सत्ता-तंत्र मानते हैं लेकिन आध्यात्मिकता को सहज मानवीय प्रवृत्ति के रूप में देखते हैं। कबीर, कार्ल मार्क्स, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के धर्म और अध्यात्म सम्बन्धी विचारों के आधार पर अपनी अवधारणा को तैयार करते हैं। उनकी दृढ़ मान्यता है कि धर्म का फलतः साम्प्रदायिकता का, उन्मूलन तभी सम्भव है जब आध्यात्मिकता को मानव सुलभ मानकर धर्म से उसे स्वायत्त किया जाए।

पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखन का एक बड़ा हिस्सा भक्तिकाल पर है। ख़ास तौर पर कबीर पर। जाति, धर्म, औपनिवेशिक आधुनिकता, अस्मितावाद इत्यादि वैचारिक निरूपणों से आच्छादित कबीर के कवि रूप को सामने लाकर उन्होंने उनकी प्रासंगिकता को पुनः अनुभूत बनाया है।

बौद्धिक बेचैनी, साहित्यिक अभिरुचि, सांस्कृतिक अन्तर्दृष्टि और आलोचकीय विवेक के साथ समकालीन जीवन के विविध पक्षों और प्रश्नों पर विचार करनेवाले बुद्धिजीवी विरल हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल की पत्रकारिता इस दृष्टि से आश्वस्तिदायक है। उनका कथा साहित्य विविध संकटों से आच्छन्न बौद्धिक-जीवन के संघर्ष और जिजीविषा को सामने लाता है। उनके साहित्य में फासीवाद के देशी संस्करण के दबाव में अभिव्यक्ति के संकट और कला-बुद्धि-विरोधी दमघोंटू वातावरण की भयावहता का एहसास मुक्तिबोध की याद दिलाता है।

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